माँ का आँचल
सुबह सुबह जब
सूरज को उठता पाया,
चिडियों की चहक और फूलो की महक से,
सारे आँगन को मस्ताते पाया,
दूर से चली आ रही थी मेरी माँ ,
आज हवा को भी उसके आँचल को सहलाते पाया ।
घर से जब निकली थी वो
चूड़ी कंगन,झुमके पहनी थी वो,
हाथो मे मेहंदी,पैरो मे महावर,
आँखो मे काजल और कुमकुम माथे पर,
उसके सलोने रूप को देखकर,
फूलो को भी शरमाते पाया,
आज हवा को भी उसके आँचल को सहलाते पाया ।
गंगा के तल सा मन,
जमुना के जल सा तन ,
सरस्वती के तिल सा जीवन ,
मेरी माँ मानो त्रिवेणी का हो संगम ,
करके पूजा तुलसी की
मेरे सर पर हाथ फेरकर ,
माँ को मैने मुसकाते पाया
आज हवा को भी उसके आँचल को सहलाते पाया ।
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