Monday, 1 May 2017

बाबुल

बाबुल


कैसे पराया होने लगा,
ये मेरा अपना घर,
जिन खुशियों मे साथ रहे
अब उनसे ही, हो जाऊँगी बेखबर।
ये कैसी रीत समाज की,
फूलों के गुलिस्तां का एक सुमन,
गया  किसी की बगिया महकाने,
हो गया किसी को अर्पण ।
जिस माली ने उसको बोया,
सींचा कितने प्यार से,
पल-पल उसकी रक्षा करता,
धूप,बर्फ ,बौछार से।
उसके आँगन में वो खिलती,
पाती अपनी साख वो,
उसको छोड़ चल दी ,
थामे अजनबी का हाथ वो।
एक  विश्वास मन मे लिए,
प्रीत की डोर से बाँधकर,
रहेगी उसकी सुगंध अलौकिक, 
रखेगा  वो अजनबी सँभालकर ।
जिस आँगन की माटी मे खेली
जहाँ गूँजे हर पल उसकी हँसी ठिठोली,
अचानक कैसे बाबुल को छोड़
साजन की हो ली।
याद आने लगती बरबस,
बाबुल की दुलार भरी बातें,
कुछ तो छूट रहा है मेरा,
जिसको तकती मेरी आँखें।
बिदाई की बेला थी,
मिल रहा था नया जहाँ,
पर मै अकेली थी, 
विदा होते होते,
आँखें मेरी भर आई,
बाबुल के आँगन की कली,
आज हो गई थी पराई।

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