Friday 20 October 2017

जब से क़रीब हो के चले, ज़िन्दगी से हम



जब से क़रीब हो के चले, ज़िन्दगी से हम
ख़ुद अपने आईने को लगे, अजनबी से हम

आँखों को दे के रोशनी गुल कर दिये चराग़
तंग आ चुके हैं वक़्त कि इस दिल्लगी से हम


अच्छे बुरे के फ़र्क ने बस्ती उजाड़ दी
मजबूर हो के मिलने लगे हर किसी से हम

वो कौन है जो पास भी है और दूर भी
हर लम्हा माँगते हैं किसी को किसी से हम

एहसास ये भी कम नहीं जीने के वास्ते
हर दर्द जी रहे हैं तुम्हारी ख़ुशी से हम

कुछ दूर चलके रास्ते सब एक से लगे
मिलने गए किसी से मिलाये किसी से हम

किस मोड़ पर हयात ने पहुँचा दिया हमें
नाराज़ है ग़मों से ना ख़ुश हैं ख़ुशी से हम...




हम सफ़र बनके हम साथ हैं आज भी
फिर भी है ये सफ़र अजनबी अजनबी
राह भी अजनबी मोड़ भी अजनबी
जाएँ हम किधर अजनबी अजनबी

जिन्दगी हो गयी है सुलगता सफ़र
दूर तक आ रहा है धुआं सा नज़र
जाने किस मोड़ पर खो गयी हर ख़ुशी
देके दर्द-ए-ज़िगर अजनबी अजनबी

हमने चुन चुन के तिनके बनाया था जो
आशियाँ हसरतों से सजाया था जो
है चमन में वही आशियाँ आज भी
लग रह है मगर अजनबी अजनबी

किस को मालूम था दिन ये भी आएंगे
मौसमों की तरह दिल बदल जायेंगे
दिन हुआ अजनबी रात भी अजनबी
हर घड़ी हर पहर अजनबी अजनबी....






जब कभी तेरा नाम लेते हैं
दिल से हम इंतकाम लेते हैं 

मेरी बरबादियों के अफसाने 
मेरे यारों के नाम लेते हैं 

बस ये ही जुर्म है अपना 
हम मुहबबत से काम लेते हैं 

हर कदम पर गिरे मगर सीखा 
कैसे गिरतों को थाम लेते हैं 

हम भटक कर जुनूं की राहों में 
अकल से इंतकाम लेते हैं 
जब कभी तेरा नाम लेतेहैं





में ढली पलकों पे जुगनूँ आए
रात आँखों में ढली पलकों पे जुगनूँ आए
हम हवाओं की तरह जाके उसे छू आए

बस गई है मेरे अहसास में ये कैसी महक
कोई ख़ुशबू मैं लगाऊँ तेरी ख़ुशबू आए

उसने छू कर मुझे पत्थर से फिर इंसान किया
मुद्दतों बाद मेरी आँखों में आँसू आए

मैंने दिन रात ख़ुदा से ये दुआ माँगी थी
कोई आहट ना हो दर पर मेरे जब तू आए

-बशीर बद्र

इसी ग़ज़ल के कुछ और अश'आर:

मेरा आईना भी अब मेरी तरह पागल है
आईना देखने जाऊँ तो नज़र तू आए

किस तकल्लुफ़ से गले मिलने का मौसम आया
कुछ काग़ज़ के फूल लिए काँच के बाजू आए

उन फ़कीरों को ग़ज़ल अपनी सुनाते रहियो
जिनकी आवाज़ में दरगाहों की ख़ुशबू आए




कुछ इस अदा से आज वो पहलू-नशीं रहे,
जब तक हमारे पास रहे हम नहीं रहे..

मुझ को नहीं क़ुबूल दो-आलम की वुसअतें,
क़िस्मत में कू-ए-यार की दो-गज़ ज़मीं रहे...

दर्द-ओ-ग़म-ए-फ़िराक के ये सख़्त मरहले
हैराँ हूँ मैं कि फिर भी तुम इतने हसीं रहे..


अंगड़ाई पर अंगड़ाई लेती है रात जुदाई की 
तुम क्या समझो तुम क्या जानो बात मिरी तन्हाई की 

कौन सियाही घोल रहा था वक़्त के बहते दरिया में 
मैंने आँख झुकी देखी है आज किसी हरजाई की 

टूट गये सय्याल नगीने फ़ूट बहे रुख्सारों पर 
देखो मेरा साथ न देना बात है यह रुसवाई की 

वस्ल की रात न जाने क्यूँ इसरार था उनके जाने पर 
वक़्त से पहले डूब गए तारों ने बड़ी दानाई की 

उड़ते-उड़ते आस का पंछी दूर उफुक में डूब गया 
रोते-रोते बैठ गई आवाज़ किसी सौदाई की



कोई समझेगा ख्या राज ए गुलशन ...
जब तक उलझे न काटों से दामन ...

यक ब यक सामने आ ना जाना ...
रुक न जाए कही दिल की धडकन ...

गुल तो गुल खार तक चुन लिये है ...
फिर भी खाली है गुलची का दामन ...

अजमत एे आशियाँ बढा दी ...
बर्क को दोस्त समझूँ की दुश्मन .....
हम को दुश्मन की निगाहों से न देखा कीजे
प्यार ही प्यार हैं हम, हम पे भरोसा कीजे

चंद यादों के सिवा हाथ न कुछ आयेगा
इस तरह उम्र-ए-गुरेज़ाँ का न पीछा कीजे


रौशनी औरों के आँगन में गवारा न सही
कम से कम अपने ही घर में तो उजाला कीजे

क्या ख़बर कब वो चले आएँगे मिलने के लिये
रोज़ पल्कों पे नई शम्में जलाया कीजे


सीने में सुलगते हैं अरमाँ, आँखों में उदासी छायी है
ये आज तेरी दुनिया से हमें, तक़दीर कहाँ ले आई है

कुछ आँख में आँसू बाकी हैं, जो मेरे ग़म के साथी हैं
अब दिल है ना दिल के अरमाँ हैं, बस मैं हूँ मेरी तन्हाई है

ना तुझसे गिला कोई हमको, ना कोई शिकायत दुनिया से
दो चार कदम जब मंज़िल थी, क़िस्मत ने ठोकर खाई है

एक ऐसी आग लगी मन में, जीने भी ना दे मरने भी ना दे
चुप हूँ तो कलेजा जलता है, बोलूँ तो तेरी रूसवाई है....

No comments:

Post a Comment