Monday, 4 December 2017

"पिता-बेटी"*



"पिता-बेटी"*
"पापा मैंने आपके लिए हलवा बनाया है" 11साल की बेटी अपने पिता से बोली जो कि अभी office से घर आये ही थे ! ,
पिता "वाह क्या बात है ,ला कर खिलाओ फिर पापा को,"
बेटी ड़ती रसोई मे गई और बडा कटोरा भरकर हलवा लेकर आई ..
पिता ने खाना शुरू किया और बेटी को देखा ..
पिता की आँखों मे आँसू थे...
-क्या हुआ पापा हलवा अच्छा नही लगा
पिता- नही मेरी बेटी बहुत अच्छा बना है ,
और देखते देखते पूरा कटोरा खाली कर दिया; इतने मे माँ बाथरूम से नहाकर बाहर आई ,
और बोली- "ला मुझे भी खिला तेरा हलवा"
पिता ने बेटी को 50 रु इनाम मे दिए , बेटी खुशी से मम्मी के लिए रसोई से हलवा लेकर आई मगर ये क्या जैसे ही उसने हलवा की पहली चम्मच मुंह मे डाली तो तुरंत थूक दिया और बोली- "ये क्या बनाया है, ये कोई हलवा है, इसमें तो चीनी नही नमक भरा है , और आप इसे कैसे खा गये ये तो जहर हैं , मेरे बनाये खाने मे तो कभी नमक मिर्च कम है तेज है कहते रहते हो ओर बेटी को बजाय कुछ कहने के इनाम देते हो...."
पिता-(हंसते हुए)- "पगली तेरा मेरा तो जीवन भर का साथ है, रिश्ता है पति पत्नी का जिसमें नौकझौक रूठना मनाना सब चलता है; मगर ये तो बेटी है कल चली जाएगी, मगर आज इसे वो एहसास वो अपनापन महसूस हुआ जो मुझे इसके जन्म के समय हुआ था। आज इसने बडे प्यार से पहली बार मेरे लिए कुछ बनाया है, फिर वो जैसा भी हो मेरे लिए सबसे बेहतर और सबसे स्वादिष्ट है; ये बेटियां अपने पापा की परियां , और राजकुमारी होती है जैसे तुम अपने पापा की हो ..."
वो रोते हुए पति के सीने से लग गई और सोच रही थी
*इसीलिए हर लडकी अपने पति मे अपने पापा की छवि ढूंढती है..*
दोस्तों यही सच है हर बेटी अपने पिता के बडे करीब होती है या यूं कहे कलेजे का टुकड़ा इसीलिए शादी मे विदाई के समय सबसे ज्यादा पिता ही रोता है ....
इसीलिए हर पिता हर समय अपनी बेटी की फिक्र करता रहता है



Ashok Kumar Jain

बात अगर सुरक्षा की करें तो लड़की सन्‍नाटे रास्‍तों पर जाने से डरती है लेकिन उस डर का क्‍या करें, जो घर के अंदर पनपता है और लड़की के साथ बड़ा होता है। उस डर का क्‍या करें जो उसके पैदा होते ही उसके दिमाग में बैठ जाता है और उम्र के आधे पड़ाव को पार करने तक रहता है। जी हां हम बात कर रहे हैं घरेलू हिंसा की, जिसकी अनगिनत वारदातें हमारे देश में होती हैं, लेकिन दर्ज महज सौ-पचास होती हैं, वो भी चरम पर पहुंचने के बाद।


घरेलू हिंसा की शुरुआत होती है तब जब बच्‍ची अपने मां-बाप से खिलौना मांगती है। हमारा समाज उनको बचपन से ही उन्‍हें कमजोर बनाता है। जब लड़का छोटा होता है, तो हम उसके हाथों में बैट-बाल या स्‍पोर्टस का सामान पकड़ाते हैं, जिससे वह शारीरिक और मानसिक रूप से मजबूत बनता है। लेकिन लड़की को खेलने के लिए गुड्डा-गुडि़या या चूल्‍हा बर्तन वाले खिलौने देते हैं, जिससे वह शारीरिक और मानसिक रूप से कमजोर होती चली जाती है। इसके साथ ही भावनाओं में बहती जाती है।


अब लड़कियां जैसे-जैसे बड़ी होती हैं उनकी शादी कर दी जाती हे और फिर घर की पाबंदियां और समाज की यातनाएं उन पर हावी होती चली जाती हैं। लड़का अपना अंडरगार्मेंट कहीं भी फैलाए, कोई फर्क नहीं पड़ता, लेकिन अगर लड़की अपना अंर्तवस्‍त्र कही भी फैला दे तो, इसको अश्‍लील हरकत कहा जाता है। उनके पहनने, बोलने, चलने, लड़को से बात करने पर पाबंदीयों की झड़ी लगी रहती है।


आम तौर पर लोग घरेलू हिंसा को सिर्फ घर में मार-कुटाई ही समझते हैं, बल्कि सही मायने में लड़कियों के अरमानों को दबाना, घर के अंदर परिवार के सदस्‍यों द्वारा रोज-रोज मानसिक प्रताड़ना देना, गुस्‍से में उसके द्वारा परोसा हुआ खाना फेंक देना, उसके साथ गाली-गलौज करना, उसकी मंशा के विरुद्ध जाकर उसकी पढ़ाई रोक देना, आदि भी घरेलू हिंसा के ही रूप हैं। इसके अलावा यौन उत्‍पीड़न भी एक बड़ी हिंसा है, जिसके लिए आम तौर पर दूर के रिश्‍तेदार या पड़ोस के लोग जिम्‍मेदार होते हैं। ऐसे में जब लड़की विरोध करती है, तो बदनामी का हवाला देकर उसका मुंह बंद कर दिया जाता है। इस तरह की प्रताणना घर में ही नहीं, ससुराल जाने के बाद भी मिलती हैं। हालांकि उस समय दहेज प्रताड़ना भी उसमें जुड़ जाती है।


अगर हम यह सोचें कि हत्‍या या फिर ऑनर किलिंग की शिकार लड़कियों की मौत के बाद उनके हत्‍यारों को पकड़ने की मांगों को लेकर जुलूस निकालने वाले महिला संगठन इसमें कुछ करेंगे, या इस हिंसा को रोकने की जिम्‍मेदारी पुलिस की है, तो हम गलत हैं। महिला संगठन सिर्फ जागरूकता पैदा कर सकते हैं, पुलिस सिर्फ उत्‍पीड़न करने वाले को सलाखों के पीछे डाल सकती है, कोर्ट सिर्फ न्‍याय दे सकता है, इनमें से कोई भी आपके घर के अंदर नहीं आ सकता। हरि ऊँ 🙏😊

लिहाजा जरूरत है तो सिर्फ सोच बदलने की।





हाँ बहू ही हूँ मै

अक्सर लोगों को कहते सुनता हूँ "हमारी बहू बेटी जैसी है"..... क्या आपने कभी किसी को कहते सुना है कि "मम्मी बिल्कुल पापा जैसी है या पापा मम्मी जैसे हैं ".....नहीं, क्योंकि पापा पापा होते हैं और मम्मी मम्मी. उन्हे किसी के जैसा होने की जरूरत नहीं है....... जब हम किसी के जैसा होना चाहते हैं तो अपने अस्तित्व पर ही प्रहार कर देते हैं....... बहू बेटी जैसी होनी चाहिए, यह वाक्य बहू की पहचान पर प्रश्न उठाता है....... क्या बहू होने मे अपनी कोई खासियत नहीं है जो बेटी जैसा होने का प्रमाण चाहिए?........बहू होना क्या इतना बुरा है? कोई यह भी क्यूँ कहता है "हम बहू को बेटी जैसा प्यार देंगे"......, इसका मतलब बहू जैसा प्यार या तो होता ही नहीं या फिर देने लायक नहीं होता........ बहू बहू होती है और बेटी बेटी.......इनकी तुलना करना बेबुनियाद है. .....यह तुलना करके आप संतरे से यह कह रहे हैं कि तू सेब की तरह गुणकारी नहीं हैं और सेब से ये कह रहे हैं कि तू रसदार नहीं है........

बेटी घर मे जन्म लेती है, उसके बचपन की किलकारियों से गूँजता है घर.........बहू पराए घर से आती है,..... अपना बचपन कहीं पीछे छोड़ आती है......., वो बेटी जैसी कैसे हो सकती है? ......और क्यों हो वो बेटी जैसी?........ जब वो कहते कि मैं बेटी जैसी हूँ मैंने कहा मैं बचपन से तो किसी और की बेटी थी अब अचानक स्टेटस कैसे बदलूँ?.......

मुझे नहीं होना किसी के जैसा, मैं स्वयं मे ही सम्पूर्ण हूँ. अगर हो सके तो मेरे बुरे वक्त मे साथ खड़े रहना........मेरी स्वाभाविक कमजोरियों पर हँसना मत......मेरे मातृत्व पर सवाल मत खड़े करना..... मुझे बेटी जैसा प्यार मत देना......., पर मुझे बहू का सम्मान देना....... मुझे बहू का प्यार देना.....


मैं बहू हूँ और बहू ही रहूँगी......बेटी तो मैं किसी की सालों पहले जन्मी थी,...... अब यह फिर से तो ये अगले जन्म मे ही पाएगा...
😊😊😊😊😊😊😊





क्या मेरा शृंगार मेरी कमज़ोरी है? हाथों की चूड़ियां ज़ंजीर हैं जैसे कोई, पैरों की पायल बेड़ियां हो गईं शायद… माथे की बिंदी ने लाजवंती बना दिया या कानों की बाली ने दासी बना दिया…?

मेरी ख़ूबसूरती के सारे प्रतीक मेरी कमज़ोरी की निशानी कब, क्यों और आख़िर कैसे बना दिए गए? मेरा बेटी होना ही क्या मेरा कमज़ोर होना है? आज जब मैं एक बेटी होकर भी घर की सारी ज़िम्मेदारियां पूरी करती हूं, तो क्यों तारीफ़ के नाम पर बार-बार यही सुनने को मिलता है कि ये हमारी बेटी नहीं, बेटा है?





इस वक्त क्या कर रही हो मोबाइल पर?किससे चैट कर रही हो इतनी रात को?
किसका फोन था ? किससे बात कर रही थी? क्या बात कर रही थी?
कहां हो तुम?अकेली चली गई ? साथ में कौन है? अरे फ्रैंडस तो ठीक ये बताओ कि मेल थे कि फीमेल?
समय पर घर नहीं आ सकती? अच्छे खानदान की और भी कोई औरतें बाहर निकलती है इस समय?
क्या लिख रही हो?क्यों लिखती हो?
ये चली है समाज को बदलने?
तुम को कोई काम धाम है कि नहीं? क्या करती हो दिनभर?
धीरे हंसों....सभ्य घरों में बेटियाँ जोर जोर से नहीं बात करती !
ढंग से रहा करो..?
कैसे कपडे पहनती हो...?
औरत जात को ये सब शोभा नहीं देता...?" हरि ऊँ 🙏🙏

ये है समान अधिकार?????????????????
" कहाँ थे , कहाँ पहुँच गये। "

पहले एक तोलिये से पूरा घर नहाता था।

और दूध का नम्बर बारी बारी आता था।

छोटा माँ के पास सो कर इठलाता था।

पिता जी से मार का डर सताता था।

बुआ के आने से माहौल शान्त हो जाता था।

पोहे मूँगफली खीर से पूरा घर रविवार मनाता था।

बड़े भाई के कपड़े छोटे होने का इन्तजार रहता था।

स्कूल मे बड़े की ताकत से छोटा रौब जमाता था।

बहन व भाई के प्यार का सबसे नाता था।

धन का महत्व कभी सोच भी न पाता था।

बड़े का बस्ता किताबें साईकिल कपड़े खिलोने पेन्सिल स्लेट स्टाईल चप्पल सब से मेरा नाता था।

मामा मामी नाना नानी पर हक जताता था।

एक छोटी से सन्दूक (जिसमें कंचे माचिस के खोके राखी के ऊपर लगे खिलोने दस पाँच के कुछ सिक्के)

को अपनी जान से ज्यादा प्यारी तिजोरी

बताता था। रवि रिझवानी

*अब*

तोलिया अलग हुआ,

दूध अधिक हुआ,

माॅ तरसने लगी,

पिता जी डरने लगे,

बुआ से कट गये,

खीर की जगह टाफी पिज्जा बर्गर आ गये,

कपड़े भी भोगी हो गये,

भाईयों से दूर हो गये,

बहन के प्रेम की जगह गर्लफ्रेण्ड आ गई,

धन प्रमुख हो गया,

अब सब नया चाहिये,

नाना आदि औपचारिक हो गये।

बटुऐ मे नोट हो गये।

कई भाषाऐं तो सीखे ,

मगर संस्कार भूल गये।

कुछ पाया पर सब खो गये।

रिश्तों के अर्थ बदल गये,

हम जीते तो लगते हैं

पर एहसास व संवेदनाओं से मर गये।

कृपया सोचे कहाँ थे ,

कहाँ पहुँच गये।







एक स्त्री द्वारा लिखित बेहद संवेदन शील और अन्दर तक झकझोरने वाला लेख..😢

मुझे याद नहीं कि बचपन में कभी सिर्फ इस वजह से स्‍कूल में देर तक रुकी रही होऊं ...कि बाहर बारिश हो रही है।

ना।

भीगते हुए ही घर पहुंच जाती थी। और तब बारिश में भीगने का मतलब होता था घर पर अजवाइन वाले गर्म सरसों के तेल की मालिश। और ये हर बार होता ही था। मौज में भीगूं तो डांट के साथ-साथ सरसों का तेल हाजिर।

फिर जब घर से दूर रहने लगी तो धीरे- धीरे बारिश में भीगना कम होते -होते बंद ही हो गया। यूं नहीं कि बाद में जिंदगी में लोग नहीं थे। लेकिन किसी के दिमाग में कभी नहीं आया कि बारिश में भीगी लड़की के तलवों पर गर्म सरसों का तेल मल दिया जाए।

कभी नहीं।

ऐसी सैकड़ों चीजें, जो " मां " हमेशा करती थीं, मां से दूर होने के बाद किसी ने नहीं की।

किसी ने कभी बालों में तेल नहीं लगाया । मां आज भी एक दिन के लिए भी मिले तो बालों में तेल जरूर लगाएं।

बचपन में खाना मनपसंद न हो तो मां दस और ऑप्‍शन देती।. रवि रिझवानी

अच्‍छा घी-गुड़ रोटी खा लो, अच्‍छा आलू की भुजिया बना देती हूं। मां नखरे सहती थी, इसलिए उनसे लडियाते भी थे। लेकिन बाद में किसी ने इस तरह लाड़ नहीं दिखाया। मैं भी अपने आप सारी सब्जियां खाने लगीं।

मेरी जिंदगी में मां सिर्फ एक ही है। दोबारा कभी कोई मां नहीं आई, हालांकि बड़ी होकर मैं जरूर मां बन गई। लड़कियां हो जाती हैं न मां अपने आप।।

पति कब छोटा बच्‍चा हो जाता है, कब उस पर मुहब्‍बत से ज्‍यादा दुलार बरसने लगता है, पता ही नहीं चलता। उनके सिर में तेल भी लग जाता है, ये परवाह भी होने लगती है कि उसका पसंदीदा (फेवरेट ) खाना बनाऊं, उसके नखरे भी उठाए जाने लगते हैं।

लड़कों की जिंदगी में कई माएं आती हैं। बहन भी मां हो जाती है, पत्‍नी तो होती ही है, बेटियां भी एक उम्र के बाद बूढ़े पिता की मां ही बन जाती हैं, लेकिन लड़कियों के पास सिर्फ एक ही मां है।

बड़े होने के बाद उसे दोबारा कोई मां नहीं मिलती। वो लाड़- दुलार, नखरे, दोबारा कभी नहीं आते।

रवि रिझवानी

लड़कियों को जिंदगी में सिर्फ एक ही बार मिलती है हरि ऊँ 🙏🙏






मैं एक नारी हूँ,मैं सब संभाल लेती हूँ

हर मुश्किल से खुद को उबार लेती हूँ


नहीं मिलता वक्त घर गृहस्थी में

फिर भी अपने लिए वक्त निकाल लेती हूँ


टूटी होती हूँ अन्दर से कई बार मैं

पर सबकी खुशी के लिए मुस्कुरा लेती हूँ


गलत ना होके भी ठहराई जाती हूँ गलत

घर की शांति के लिए मैं चुप्पी साध लेती हूँ


सच्चाई के लिए लड़ती हूँ सदा मैं

अपनों को जिताने के लिए हार मान लेती हूँ


व्यस्त हैं सब प्यार का इजहार नहीं करते

पर मैं फिर भी सबके दिल की बात जान लेती हूँ


कहीं नजर ना लग जाये मेरी अपनी ही

इसलिए पति बच्चों की नजर उतार लेती हूँ


उठती नहीं जिम्मेदारियाँ मुझसे कभी कभी

पर फिर भी बिन उफ किये सब संभाल लेती हूँ


बहुत थक जाती हूँ कभी कभी

पति के कंधें पर सर रख थकान उतार लेती हूँ


नहीं सहा जाता जब दर्द,औंर खुशियाँ

तब अपनी भावनाओं को कागज पर उतार लेती हूँ


कभी कभी खाली लगता हैं भीतर कुछ

तब घर के हर कोने में खुद को तलाश लेती हूँ


खुश हूँ मैं कि मैं किसी को कुछ दे सकती हूँ

जीवनसाथी के संग संग चल सपने संवार लेती हूँ


हाँ मैं एक नारी हूँ,मैं सब संभाल लेती हूँ

अपनों की खुशियों के लिए अपना सबकुछ वार देती हूँ।




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