Sunday 3 December 2017

जब जब लोगों के हुजूम में अकेलापन चुभने लगता है,

जब जब लोगों के हुजूम में अकेलापन चुभने लगता है,
तब बीते हुए उन लम्हों की यादों में मन डूबने लगता है।
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याद आने लगता है बचपन का वो मस्ती भरा हुआ दौर,
शीशम के डाल पर डले झूले पर मन झूलने लगता है।

साईकिल के टायर की दौड़ याद आती है पहले ही पल,
दूसरे ही पल में मन जोहड़ में नहाकर सूखने लगता है।

कभी मिट्टी के खिलौने कभी माचिश के ताश बनाता है,
देख लगे आम जामुन अपने आप मन रुकने लगता है।

आकाशवाणी के रोहतक व दिल्ली चैनल की रागनियाँ,
साथ में टेलीविजन का लकड़ी का स्टर खुलने लगता है।

कभी मोटे फ्रेम का दादी का चश्मा लगाता है मन मेरा,
कभी मन गुड़गुड़ा कर हुक्का दादा का छुपने लगता है।

कभी कोने में रखे मिट्टी के चूल्हे से राख निकालता है,
कभी दादी के चरखे के सूत सा यादों से जुड़ने लगता है।

कभी बनाता है मोर चंदों से गाय भैंसों बैलों की माला,
कभी हरियाली देखने को मन खेतों में घूमने लगता है।

सच में हर जगह सुकून था, हर किसी से अपनापन था,
अक्सर मन उन सुनहरी यादों में खोकर उड़ने लगता है।

आनंद मिलता है बीते लम्हों की यादों की भूल भुलैया में,
वापिस लौटते ही यादों से मन मेरा दुखने लगता है।
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बहता जाता जीवन पानी 
क्या चाहों की खीचातानी 

सुबह हुई तो पिघली जाये 
लाली आँखों की मस्तानी 

जीवन गाड़ी चलती जाती 
और अभावों की मनमानी 

प्रीत पली है ,घृणा बसी है 
मन की माया किसने जानी 
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दीवारों से बातें करती 
दरवाज़ा देखे वीरानी 

दौड़े घोड़े ,लौटे थक कर 
सपनों की कैसी नादानी 

माँग रही थोड़ा अपनापन 
मैं करती न हूँ आनाकानी 

इच्छाओं के सून गगन में 
ढूँढ रही हूँ घटा सुहानी 

चाँद चमकता है चाँदी का 
और हुई दुनिया दीवानी 

आगे - आगे नाव चलेगी 
धकिया पीछे ठहरा पानी 

ज़हरी साँप खींचने आते 
चंदन तन की महक सुहानी 
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"सारिका" तुम्हें क्या लेना इससे 
यह तो है आँखों का पानी
देखो तो , कोई पूरा नहीं 
मानो तो , कोई अधूरा नहीं !!
साज जब सारे मिलते हैं 
एक ही साथ सब बजते हैं 
तब जो संगीत निकलता है 
हृदय-द्रव तभी पिघलता है
लूट सके महफिल अकेला
बना कोई ऐसा तानपूरा नहीं ! देखो तो , कोई पूरा नहीं
मानो तो कोई अधूरा नहीं !! माना कहीं कोई मजबूरी है
पर सबका साथ ज़रूरी है
हो नहीं सकते सभी पूर्ण-रागी
पर हर कोई यहाँ बेसुरा नहीं ! देखो तो , कोई पूरा नहीं
मानो तो , कोई अधूरा नहीं !!



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आया करैं सैं तीज वो मिहना सामण का हो सै,
रूखां घल ज्यां पींघ वो मिहना सामण का हो सै.!

बरसै मीह गरजैं बादळ कुकैं कोयल अर मोर नाचैं,
बिना पाँख भी मन माणस का जब उड़न का हो सै..!

गाँवैं गीत बढ़ावैं पींघ लरजैं डाळे अर झोटे लेवैं,
लाम्बा हाथ लफा कैं तोड़ना नाक सासू का हो सै.!

फुटैं कोपळ खिलैं फूल उडैं भंवरे अर लोग हरसैं,
हरयाली चोगर्दै बखत निराळा झड़ लाण का हो सै.!

बणावैं सुहाळी तारैं गुलगले बाँटैं घेवर अर पूड़े खावैं,
ले कैं नै कोथळी बाहण धोरै फर्ज जाण का हो सै.!

आया करैं सैं तीज वो मिहना सामण का हो सै,
रूखां घल ज्यां पींघ वो मिहना सामण का हो सै।।

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