Monday, 9 April 2018

तेरे ग़म ने ही संभाला है दिल को

 सबब क्या है जाने इस दीवानगी का 
जाने क्यों तुम पे जान-ओ-दिल  लुटाते हैं 
नाकाम होते हैं बारहा इश्क़ में हम 
बारहा तुम ही से फिर इश्क़ फरमाते हैं 

 इन आँखों में सूरत तेरी सुहानी है
मोम सी पिघल रही मेरी जवानी है
जिस शिद्दत से सितम हुए थे हम पर
मर जाना चाहिए था, जिंदा हैं, हैरानी है
 जाँ-ब-लब   ठहरी  अब  तो   प्यारे  मेरे
तेरी  इन  निगाहों  ने  होश  सँभाले  मेरे
हर  शाम  को  होती  हैं  यही  खवाहिशें
आ  बैठोगे  तुम   दिल  के   किनारे  मेरे
 सबब क्या है जाने इस दीवानगी का
जाने क्यों तुम पे जान-ओ-दिल  लुटाते हैं
नाकाम होते हैं बारहा इश्क़ में हम
बारहा तुम ही से फिर इश्क़ फरमाते हैं
 तेरे ग़म ने ही संभाला है दिल को
वरना निकल गई हर हसरत होती
मेरे दिल में अगर तेरी चाहत ना होती
हर शख्स से मुझे फिर नफ़रत होती
 इश्क़   के   समंदर    में   हम   दोनों
कभी   उतरे    थे    इक   सफीने  में
इश्क़  की  रातों   में   इक   रात   थी
जब   भीग  रहे   थे    हम   पसीने  में
 कुछ लोग मिलते हैं किस्मतों से
उस से बिछड़ के जाना है ये
है इश्क़ नहीं ये सब के लिए
“आकाश” हमने अब माना है ये
 मैंने चाहा हमेशा कोई हो अपना
इसके सिवा कुछ कभी चाहा नहीं
अपना नसीब ही जाने ये कैसा है
मुझको पूरी तरह कोई मिला नहीं
 उसकी आँख जब उदास रहती है 
मेरी आँखों में बेहद खलती है
कुछ इसलिए ना मिलाता हूँ नज़र 
के उसकी नज़र सवाल करती है
 पैगाम भेजूंगा हवा के हाथ तुम्हें
खिड़की से गुजरे तो पूछा करना
दुःख की सियाह रातों में चाँद ग़र
कभी छत पे आए तो देखा करना
 वस्ल की तलब में जलता तन-बदन रहता है
हिज्र ही मुसलसल हमारे दरमियान रहता है
दूर रह के भी दिल के कितने करीब हैं हम
हम दोनों की तरह तो भला कौन रहता है


 उसकी तलब है, चाहे जुदा रखना
कुछ रोज़ मुझको लेकिन खुदा रखना
मुझे हसरत है ऐसी सजा-ए-मौत की
मेरे होंठों पे उसकी सदा रखना
 जो मैं चाहता हूँ ना है चाहता कोई
मेरे दिल की यहाँ ना है सुनता कोई
तुम्हें तलब है के जियूँ तुम्हारे लिए
मेरे दिल में मगर है रोज़ मरता कोई
 वीरां – दिल के  वन  में  तेरी  खुशबू  महका करती है
मन के  इन  गलियारों  में  तेरी  याद टहला करती है
तेरे   चर्चे   होते   रहते   हैं,   हर   बाग –  बगीचे  में
इक  तितली  तेरे  बारे  में  फूलों   से  पूछा  करती  है
 करीने से सजा के अलमारियां उसने
साड़ी से बाँध ली हैं चाबियाँ उसने
अब मैं संभालुंगी घर को कह कर
कान से उतार दी हैं बालियाँ उसने

 बिस्तर की सिलवटों में सिमट जायें हम
आ किसी रोज़ हद से गुज़र जायें हम
बर्फ से हुए पड़े हैं जो ये बदन हमारे
ये पिघल जायें जो अगर मिल जायें हम
 तेरे  ये  ख्याल, अहबाब  हैं उजालों के
तेरे ये ख्वाब, महबूब  हैं  मेरी रातों  के
बंद कमरे के इन सियाह अंधियारों में
जगमगाते रहते हैं जुगनू तेरी यादों के
 तेरे लिए इक नई दुनिया बना रहा हूँ 
मैं ख्वाबों में अभी पगडंडियाँ बना रहा हूँ 
इत्र सी आएं फूलों से खुशबूएं जहाँ 
ऐसे पर्वतों पर तेरे लिए कुटिया बना रहा हूँ 
 जिस दिल को सौंपा था मोड़ भी आया उसे
वो चाहता था छोड़ना मैं छोड़ भी आया उसे
अब के ताल्लुक ना रखेगा वो कोई मुझसे
मैं दोनों हाथों को अब जोड़ भी आया उसे
 तेरे ग़म ने ही संभाला है दिल को
वरना निकल गई हर हसरत होती
मेरे दिल में अगर तेरी चाहत ना होती
हर शख्स से मुझे फिर नफ़रत होती
 मोहब्बत के  आँसू को  यूँ बहाया  नहीं जाता
इस मोती  को पागल  यूँ  गंवाया  नहीं जाता
लिए हैं  बोसे मैंने  लब-ए-जा’ना के  जब से
ऐसे – वैसों से  मुंह अब  लगाया  नहीं जाता

 ये आइने अब घर के सँवरते क्यूँ नहीं
वो ज़ुल्फ़ के सायें बिखरते क्यूँ नहीं
लगता है ऐसे के बिछड़े हैं अभी-अभी
भूले से भी उन्हें हम भूलते क्यूँ नहीं
 ख़ुशी और ग़म को समझता नहीं हूँ
वही है हाल अब जो कहता नहीं हूँ
ये वादों – कसमों को निभाना क्या है
मैं तो इक पल भी तुम्हें भूलता नहीं हूँ
 ख़ुशी तो पल दो पल की मेहमान सी निकली
तेरी नज़र ही मुसलसल मेहरबान सी निकली
सोचता रहा कल रात मैं देर तलक तुम को
कल शब तेरी याद में बड़ी परेशान सी निकली
 कलम की नोक पे कहानी रखी है
मैंने इक ग़ज़ल तुम्हारेसानी रखी है
इन आँखों को अब क्या कहें हम
दो प्यालों में शराब पुरानी रखी है
मोहब्बत के  आँसू को  यूँ बहाया  नहीं जाता
इस मोती  को पागल  यूँ  गंवाया  नहीं जाता
लिए हैं  बोसे मैंने  लब-ए-जा’ना के  जब से
ऐसे – वैसों से  मुंह अब  लगाया  नहीं जाता

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