Wednesday, 4 January 2017

एक शहर बेगाना सा रहने को मकान ढूँढ़ते है
लोग तो बहुत रहते है हम एक इंसान ढ़ूँढ़ते है

खो गयी है ज़िदगी की मायूसियों मे कहीं जो
खिलखिलाते बचपने में वो मुस्कान ढूँढ़ते है

लोगों की नज़रों मे अजनबीपन देखा है जबसे
लेकर आईना मन का अपनी पहचान ढूँढ़ते है

रेत का घरौंदा समन्दर किनारे बना तो लिया है
अब गुनगुनी हवाओं में भी हम तूफान ढूँढ़ते है

दौड़ मे ज़िदगी की इंसानियत मिलना मुश्किल है
इसलिए इंसान शायद पत्थर मे भगवान ढूँढते है


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