कौन समझाए इस नादान दिल को
याद तुझे ये पल पल करता है
इश्क करना नहीं आसान जान कर भी
तेरी याद में आहें भरता है।
#हमे लूट लिया
हमे लूट #लिया
💞 हम तो #लूट चुके है
इस #कदर ऐ #हसीं ख्वाब
कोई #लूट न ले मेरे #ख्वाब
शहर
-----
एक ही तरह का नही होता
कई तरह का होता है शहर...
आशाओं की आबादी में सहमा सिमटा
मजबूरियों का भी अपना एक शहर होता है....
दिनभर की भागदौड़़ के बाद
लौट लौट आती है जहाँ उम्मीदें
उम्र निचोड़कर जहाँ
एक कतरा भी सुकून नही टपकता
फैली रहती है उदासी शहर के आखिरी छौर तक..
मजबूरियों के शहर में
बावजूद चहल पहल के
दरकती जाती है घर घर की दीवारें
तन्हाईयों की ठसक लिये चुपचाप
कोने कोने में फैली नितांत बेबसी बस
भविष्य की योजना में वर्तमान के जख्म कुरेदती है
मजबूरियों के शहर में
हर चीज मजबूर होती है
पेड़ पौधे/गली कूँचे/ सड़क मैदान/ यहाँ तक कि
मौसम भी मजबूर होता है...
जिंदगी बहुत मजबूर होती है मजबूरियों के शहर में
एक ही तरह का नही होता
कई तरह का होता है शहर
आशाओं की आबादी में सहमा सिमटा
मजबूरियों का भी अपना शहर होता है...
धूप की कतरनों में लिपटी एक नंगी सुबह
शाम तक की मजबूरियों में
रात हो जाने की व्यथा लिये
रोज खड़ी हो जाती है समय की दहलीज पर.
लगता है जैसे माँगती हो मुझसे मेरी वेदनाऐं
जिसे जिया है मैने
स्मृतियों की खामोश चीख में
प्रतिपल टिकटिकाती
घड़ी की सुईयों जैसै..
एक दिन अनमना सा गुजर जाता है
कनखियों से देखते मेरे साये को
और कुछ शाम के पंछी उतर आते है
दिनभर की ढ़लान पर..
रात की ठंडी आहटों को जबरन धकेलते हुऐ
मै सोचता हूँ यही कि अब भी उम्मीद है
ढ़लते हुऐ सूरज की बिखरती रश्मियों के बीच
अब भी बचा है जीवन
और जी लेने की सुनहरी आतुरता के बीच
बस मुस्कुराहट की तरह फैल जाता हूँ
अपने होने की स्याह कोशिशों में..
तड़पती लहरों का उदास संताप लिये
जब कभी हताश होकर बिखरने लगो.....
और झील की शाँत बोझिलता में
अतृप्त इच्छाओं का सन्नाटा पसर जाये..
चले आना मेरी अदृश्य बाहों के खुले आमंत्रण में...
टूटी हुई वीणा के तारों को जोड़के
भर सकूँ शायद दूर दूर तक सिहरती वेदनाओं में
जीवन का फिर से वही संगीत..
जिसकी जीवंत ताजगी पर
अक्सर थिरकते रहे हो तुम
अतीत के सारे दु:स्वप्नों की आहटें भुलाकर..
प्रयासों की ठंडी कोख से
अपना पूरा वजूद लिये
न जाने कितने ही नतीजे घेर लेते है जीवन को..
जन्मते ही अभाव का नतीजा कितना खुश है
आलसीपन की आदत पर
पीठ थपथपाता है आदमी की..
जीवन की हताशा से उठता है एक नतीजा
रिश्तों के अँधेपन पर स्वार्थ को धन्यवाद देता
गर्व करता है आपसी तालमेल की दुर्दशा पर..
निजी सम्बंधों की बौखलाहट से उठा नतीजा
रात की करवटों में
अक्सर ही गिनता है सुबह तक की सिलवटें
और दिन निकलते निकलते
दीवारे खड़ी कर देता है पति पत्नी के बीच..
एकांत में गुमशुम सा एक नतीजा
घर की नजरें बचाकर
नम आँखों से रोज मिटा देता है मोबाईल से
किसी खास नम्बर से चिपके सारे संदेश..
एक नतीजा थका हारा सा उदास उदास
हथेलियों में सिर छिपाकर
रोज सिसकता है अगले दिन की उम्मीद में
और आसपास फैल जाती है
प्रयासों की प्रसव वेदनाऐं
नये नये नतीजों के आगमन की प्रतिक्षा लिये..
खूबसूरती की तो दुनियाँ कायल है
हमे तो हर वो बदसूरती भी अजीज़ है
जो जाने अंजाने छू गयी तुम्हे
वो धूल प्रिय है
जिसे छू गये तेरे कदम
वो दाग प्यारे है जो
परिस्थितियों ने उछाल दिये
तुम्हारे दामन मेे...
तुम से जुड़ी हर वो चीज
मायना रखती है
जिसमें तुम हो सिर्फ तुम...
खूबसूरती की तो दुनियाँ कायल है
हमें तो हर वो बदसूरती भी अजीज है
जो जाने अंजाने छू गयी तुम्हे...
एक ख्याल हकीकत सा
----
------------------
युवावस्था की दहलीज पर पांव रखते ही जिस्मानी हवाओं को रूहानी दर्जा करार देने की भूल ने जिंदगी को जहाँ लाकर पटका.. वहाँ फकत अकेलापन और तमाम रिश्तों की बेरूखी ही रूबरू हुई..खुदपरस्ती में प्रेम की शाश्वत गंध बिखर कर रह गयी..अकेलेपन से तंग आकर फिर एक बगीचा बो दिया, जिसमे फूल तो खिले मगर गंध का नामोनिशां नही था... दूर से दूर तक वही अतीत की परछाईयाँ वही मायूसियाँ बस एक फर्ज और दायित्व की जकड़न ने नये सिरे से घेर लिया मगर भीतर का दर्द तो किसी अदृश्य जख्म से ज्यों का त्यों फूटता रहा..कई बार सोचा जिंदगी से जिंदगी को निकाल किसी अँधेरी गुफा में डेरा डाल लिया जाये परन्तु फिर अगले ही पल भीतर से कोई आवाज देता सा प्रतीत होता जैसे कह रहा हो.. रूको अभी बहुत कुछ है जिंदगी में कोई आहट है अभी जो सांसों की दस्तकों के मुंतजिर है.. ठहरो कि कोई तुम्हारे अधूरे पन को अपनी तन्हाईयों मे सजाकर जीवन काे नया उत्साह देना चाहता है.. हर बार एक उम्मीद सी दिल में आकार लेती रही मगर उसे पूरा होने का कोई मंजर साफ साफ नजर नही आया.. समय बीतता गया और फिर दुनियाँ के दाव पैंतरों से निकलकर वो वक्त भी आया जिसके दामन में मेरे लिये असीम प्यार था.. अपनी बेबसी मे फर्ज के दायरे में फैलती तन्हाई लिये एकाएक दिल में चाँद उतर आया और एक अजब सा सुकून दिल मे भरने लगा.. वो तड़प वो मासूमियत हर ओर से केवल अपने लिये असीम प्यार बरसता देखकर दिल पिछली सारी हताशाऐं भूलकर जैसे झूम उठा.. आज वही प्यार जैसे मेरी जिंदगी का अटूट हिस्सा बन गया कि जिसके बगैर एक पल भी दूर रहना मानो सांसों का छीन जाना..प्यार के इस खूबसूरत एहसास के साथ साथ किसी डर ने भी जैसे जगह बना ली हो.. उम्र के इस मुकाम पर जहाँ सारे उत्कर्ष स्वय ही हाथ छुडाने को तैयार हो वहा प्यार का यह रूहानी तौहफा भी अगर हाथों से छीन लिया जाये तो कैसे जियेगा कोई.. बस यह डर तरह तरह की आशंकाओं से घेर कर रातदिन बेचैन करने लगा..समय की पाबंदी और वक्त की मजबूरियों के बीच अपने प्यार की प्रतिक्षा मे बेकरार दिल सिवाय आँसुओं के और कोई सबूत नही दे पाता..उस परमात्मा से बस यही प्रार्थना है कि जब उसने प्यार दिया तो उसकी हिफाजत का मुझे मुनासिब हौंसला और यकीन भी दे ताकि जहां भी रहूँ अकेला अपनी मुहब्बत के एहसास में जिंदगी को खूबसूरती से गुजार सकूं..और मेरी चाहत भी इत्मिनान और तनाव रहित होकर अपने फर्ज के किनारों में गुमान से बह सके..बस यही आरजू है यही तमन्ना यही हसरत.. कि कभी जुदा न हो सकूं अपनी जान से ..जीवन की अंतिम सांसों तक यूँ ही बहती रहे प्रेम की शाश्वत धारा....
प्रेम
------------
फर्ज और जीवन की जद्दोजहद के दौरान
थके हुऐ कदमों का सहारा है प्रेम...
बरसात में छतरी
धूप में घनी छाव है प्रेम...
प्रेम उदास चेहरों पर उतर आयी मुस्कान है
आँसुओं से भींगीं आँखों का रूमाल है प्रेम..
प्रेम आपसी सम्बंधों की मिठास है
परस्पर कमियों की अवहेलना
और एक दूसरे की खूबियों का स्वागत है..
प्रेम कदमों तले की जमीन है
सिर पर फैला आकाश है...
माँ की ममता है
पिता का स्नेह है
वात्सल्य है सौहार्द है
आपस का भाईचारा है....
प्रेम परमात्मा का प्रसाद है
आत्मा की सुगंध है
जीवन का रस है
प्रेम सवेदनाओ का माधुर्य है
विश्वास की डोर है
प्रेम इतिहास की सुखद तहरीर नही
एहसास की पवित्र तस्वीर है..
एक कतऱा इश्क़..
-------------------
"सच कहूँ तो मै भी नही रह पाती एक पल भी बिना बात किये, जी चाहता है हमेशा ही तुमसे बात करती रहूँ, बस तुम कहते जाओ और मै सुनती जाऊँ, लेकिन क्या यह संभव है राज ? क्या मेरी ऐसी चाह वास्तविक जीवन की अपेक्षाओ के विरूद्ध एक अपरिपक्व सोच का परिचय नही है?
नही.. राज.. हम उम्र और फर्ज की डोर थामे बहुत आगे तक बँध चुके है ..प्यार तो मैं भी करती हूँ मगर इस प्यार के एहसास को अब खामोश जीना होगा.. इस पवित्र एहसास को अपनी संवेदनाओं के मौन में चुपचाप जीना होगा.." रूचि और भी बहुत कुछ कहना चाहती थी मगर आवाज जैसे बैठती गयी और लगा जैसे आँखें छलक आयी हो.
"तुम रो रही हो रूचि". राज को फोन पर ही आभास हो गया.. वह जानता है रूचि अंदर ही अंदर बहुत कुछ समेटे है मगर कभी खुलकर कुछ नही कहती.. मगर आज न जाने क्यूँ जैसे एकाएक सैलाब सा उमड़ पड़ा हो..."रूचि..प्लीज..खुद को संभालो जान" राज फोन पर इससे अधिक कर भी क्या सकता था..पास होता तो वह रूचि को अपनी बाँहों मे भर लेता, उसे साँत्वना देता मगर वह बेबस था..."रूचि, मै जानता हूँ तुम मुझे खोना नही चाहती..जबकि तुमने ऐसा कुछ पाया भी नही मगर फिर भी प्यार के जिस खूबसूरत एहसास को दिल में संजोये रहती हो उसे तुम हमेशा हमेशा यूँ ही कायम रखना चाहती हो, मगर क्या अंतहीन फासलों और समय की गति के बीच इस एहसास को जिंदा रख पाना इतना आसान होगा."
" हो या न हो मगर आज तो है, आज तो जिया जा सकता है" रूचि ने राज की बात को बीच मे रोककर अपनी बात आगे बढ़ायी.." सुनो राज..हम इस तरह रोज आपस मे बाते नही कर पायेंगे, तुम तो जानते हो मै किन हालातों में हूँ.. एक जरा सी चिंगारी आग की लपटे बनकर सबकुछ स्वाह कर सकती है , तुम्हे ये रोज रोज संपर्क करने का लोभ छोड़ना होगा".. " हाँ जानता हूँ रूचि, मगर मैं क्या करूँ ? तुम्हारी आवाज सुने बगैर दिल को चैन नही आता, हमेशा एक बेकरारी सी बनी रहती है, हमेशा एक इंतजार बना रहता है कि कब राज की रूचि आयेगी और वह अपनी जान से ढ़ेर सारी बाते करेगा".." हाँ बस तुम्हारे इस जुनून और दिवानगी से ही मुझे डर लगता है" रूचि की आवाज में चिंता साफ साफ झलक रही थी.." कल अगर मैं किसी कारणवश तुमसे दूर हो गयी तो खुद को कैसे संभालोगे, राज क्यों नही तुम मुझे भूल जाते, हम जिस राह पर चल रहे है यह एहसास की राह है और एहसास की इस राह का छौर सिर्फ दर्द और आँसुओं की मंजिल से जुड़ा है..अब भी वक्त है राज अपने कदम मोड़ लो"
"क्या तुम यह दिल से कह रही हो? क्या तुम यही चाहती हो कि राज अपनी रूचि से दूर होकर वापिस अपनी खामोश वीरान तन्हाईयों में भटक जाये.. कहो रूचि..? " रूचि के पास कोई जवाब नही था... दोनों के बीच एक मौन फिर पसर गया.. दर्द की कई लहरे नम होकर आँखों मे छलछला गयी..दूर कही सडक पर वाहनों की आवाज बाहर की दुनियाँ का आभास दे रही थी मगर कमरे में निस्तब्ध चुप्पियाँ ही केवल राज और रूचि की विवशता में साक्षी बनकर फैलने लगी... शेष फिर.
धीरे चलो बस धीरे चलो
------------------
धीरे चलो कि अभी समेटनी है मुझे
पाँव की धूल
माथे पे लगाना है प्रेम तिलक
रोकना है हवाओं को
जो मचल रही तुम्हे छू छूकर...
हरेक शै पर तुम्हारे हाथों की छुअन
सहेजनी है,
बटोरना है तुम्हारी महक से जुडा हर सबब..
धीरे चलो कि बिछानी है राह में हथेलियाँ
कि चुभ न जाये कोई कंकर
कि उदास न हो जाओ तुम
तुम्हारे साये पर रखनी है नजर
पहरे बिठाने है मासूस
कि कोई गुमान न कर बैठे तुम पर
धीरे धीरे चलो
कि जिंदगी बहुत सुंदर है तुम्हे पाकर
कि न गुजर जाये यूँ ही वक्त
मेरी खुशनसीबी में तेज गति से
धीरे चलो बस धीरे चलो...
हाँ ! बेहद प्रेम है तुमसे..
---------------------
हाँ बेहद प्रेम है तुमसे
तुम्हारी सूरत से नही और न सीरत से
तुम्हारी खुशी से नही न दु:ख से
न आँसु से, न मुस्कान से
तुम्हारी खुशहाली से नही और न वैभव से
मिट्टी होता तो मिट्टी से प्रेम करता.
हाँ बेहद प्रेम है तुमसे
चूँकि तुम फूलों में खुश्बू हो
तुम काँटों की करूण प्रार्थना हो
तुम बहारों का समर्पण हो
पतझड़ की जिजिविषा हो
तुम नदी का बहाव हो
समंदर का फैलाव हो..
हाँ बेहद प्यार है तुमसे
चूँकि तुम मिलन की आकाँक्षा हो
तुम जुदाई का मर्म हो
तुम स्वप्न का सच हो
तुम उम्मीद की सांत्वना हो
तुम प्यास हो
तुम भूख हो
तुम तृप्ति हो तुम सौहार्द हो..
हाँ ! बेहद प्रेम है तुमसे
चूँकि तुम मेरी दुनियाँ नही हो
तुम मेरा वजूद हो मेरा हिस्सा हो
तुम आत्मा हो तुम परमात्मा हो..
हाँ ! बेहद प्रेम है तुमसे
सिर्फ तुमसे
हाँ तुमसे...
मेरा पता तुम हो
---------------
बिल्कुल ठीक वहाँ
जहाँ सारे आग्रह खत्म हो जाते है
खुदगर्ज मंशाऐं दम तोड़ देती है
टूट जाते है अविश्वास के सारे पुल
दरक जाती है संशय की दीवारें
और ठहर जाता है जुनून अंधी सोच का
बस वहीं हूँ अब तुम्हारी मनचाही इच्छाओ में...
बिल्कुल ठीक वहीं
जहाँ तुम खुलकर जी सकते हो
रह सकते हो अपने मुताबिक
मुस्कुरा सकते हो हृदय का मौलिक स्पर्श लिये
जहाँ तुम्हे घुटन महसूस नही होती
पछतावा नही होता
नही होता प्रेम में लिपटने का अफ्साेस
जहां तुम सिर्फ तुम होकर जीते हो
बस वहीं हूँ मै तुम्हारी राह से काँटे चुनता हुआ...
अब तुम उड़ सकते हो आकाश में
अपने होने मे महसूस कर सकते हो पूर्ण
चल सकते हो अपने कदमों से
अब तुम ले सकते हो अपने फैसले अपने अनुरूप
बस वहीं हूँ मै अपने दोनों हाथ फैलाये
तुम्हारी प्रतिक्षा में हर हमेशा
अनंत अनंत जन्मों से
तुम्हे अपने आगोश में भर लेने को आतुर..
चुप होने से पहले का अंतिम शोरगुल
----------------------------
ऐसा भी नही कि मैं अंजान हूँ
प्रतिकार और विषाद से भरा तुम्हारा चित्त
अतीत के बेरहम हाथो से आहत होकर
कितना कुछ झेल रहा है भीतर ही भीतर
और प्रेम एक छलावा सा होकर
योग और भोग के बीच
अदृश्य जाल लिये
महज अस्मतें लूटने जैसा है....
ऐसा भी नही कि मैं अंजान हूँ
चारों तरफ पसरी लोलुपता के पवित्र झाँसे
अपने निष्कर्ष पर पहुँचने से पहले
बहुत शालीन होते है
और धीरे धीरे जीवन में जहर घोलने तक
मीठे मीठे निवालों से शिकार फँसाते है..
बेखबर नही हूँ किसी अनहोनी से
अंजान नही हूँ मैं किसी संभावना से..
टूटकर बिखरी संवेदनाऐं
जब जड़ होती है तो जीवन भी पत्थर हो जाता है
पाषाण स्थिति से निकली करूणा
विद्रोही तेवर में मौन ललकार हो जाती है
वरना नेपोलियन की चित्रकारी
कभी युद्ध की परिणिति नही होती
कोमल संवेदनाओं की मृत्यु
प्रतिकार का जीवन हो जाता है....
ऐसा भी नही कि मैं अंजान हूँ
समय की बेरहमियों से निकलकर
पत्थर हुई संवेदनाऐं
प्रेम के आग्रह और पवित्रता को मोल नही देती
बस एक तमाशा चाहती है
आक्रोश के किसी एकांत में नचाती है
प्रेम प्रार्थनाओं में छिपी कठपुतलियों को..
स्मृतियों में टीसता कोई गहरा जख्म
वर्तमान में फैला दर्द कम करना चाहता है..
देखना चाहता है गिड़गिड़ाते हुऐ
पुराने कारणों की बदली नयी नयी परछाईयों को.
मगर क्या यह सच नही कि
आज अँधेरे से भरा अंत:करण
नही दे पा रहा है उजाले को विस्तार
यथार्थ की मिठास में घुल रही है अतीत की कडुवाहट
जबकि वक्त हृदय में भर देना चाहता है प्रेमरस
कभी कभी जो सिर्फ और सिर्फ अपने लिये होता है
आक्रोश के पुराने फर्श पर बिखर जाता
अपने ही हाथों बहुत दूर तक...
प्रेम भी बस एक बार आता है पूरे वैभव के साथ
फिर कभी लौट कर नही आती सदाऐं
जो सिर्फ अपने लिये होती है
सिर्फ अपने लिये
बिना किसी दांवपेंच के
हमारी ओर बाहें फैलाये.....
चारों दिशाओं में गूँजता मौन प्रेमगीत लिये..
चीख़ती खनक के साथ........
-------------------------
किसने जाना दर्द ?
कौन समझा है अतीत के खंजर का आरपार
कितना कुछ लहुलुहान कर जाता है
एहसास के नर्म कोनों मे....
किसने देखी टूटती उम्मीदों की स्थायी बिखरन
कौन सुन पाया ?
दूसरों के हिस्सों में आया मौन आर्तनाद ..
जीवन तो रहता है साथ बिना उत्कंठा के
सपने रहते है बुझी राख़ मे सुलगते
अस्थायी हवालों में
कुछ मुस्काने बची रहती है आँसुओं की ओट में..
कौन जान पाया..?
कि भीड़ में भटकता मन
मंद दिलासा के बोझिल कदमों से
रोज लौट लौटकर टूट टूट बिखर जाता है
रोजमर्रा की हताशाओं के बीच चुपचाप...
किसने जाना..?
बाहर की थोपी जरूरतों पर
सिर पटकती जिंदगी की पुकार
अपनी तन्हाईयों मे सर्द होकर क्यो जम जाती है.
किसने पाया यहाँ पाने जैसा
किसने खोये अनचाहे दु:ख अपने...
समय की गति में
गुजरने को गुजरता है बस सांसों का सिलसिला
और भीतर ही भीतर बिखर जाता है कुछ
चीख़ती खनक के साथ
बाहर बाहर मुस्कुराहट लिये....
किसी रोज तुमने कहा था
----------------------
अक्सर तुम वहम में ही उलझे रहे
कभी नही जाना मेरा दर्द
रहे हमेशा अपनी ही तसल्ली के अनुपातों में
कभी इधर कभी उधर की गन्वेषणा में...
किसी रोज तुमने कहा था कुछ ऐसा ही
और एक लंबी सांस लिये बिखर गये थे तुम...
शायद तुम नही जानते
चाँदनी में लिपटी सर्द आहों के लरजते एहसास में
स्याह रात की अंधेरी व्यथाओं से
कितनी ही बार गुजरा हूँ तुम्हे छूकर हर हमेशा..
सिसकते वक्त के सबसे गहरे एकांत में
असहाय वक्त में टूटकर गिरे हौसलों के साथ
जब भी तुम काँपते रहे अपनी नियति के फैसलों से
मैं तुम्हारे हृदय की छोटी सी गुंजायश में
धीरे धीरे अंकुरित होता रहा नन्हा पौधा सा...
रात के कटीले जागरण और खुरदरी नींदों में
अक्सर ही रहा हूँ तुम्हारी मन्नतों की आहटों में..
जानता हूँ सुखद नतीजो की कामनाओं में
टूटती मनोदशा के बीच जी रही अंतर्व्यथा में
बहुत कुछ निकल जाता है वक्त के साथ..
क्या कुछ नही मै जानता जानने जैसा
अपना ही साया अपने ही वजूद से बिखरके
ढ़लते हुऐ सूरज के साथ जब लिखता है प्रेमगाथा
दूर दूर तक फैल जाता है पाने व खोने के बीच
हृदय की जरूरतों का सबसे उज्जवल सच
फैल जाता है निस्तब्ध मौन और सिसकती रात में
दबा दबा सा जीता है हर हमेशा
आत्मिक सूर्योदय का शाश्वत भाव..
प्रेम के मनचाहे आमंत्रण की छिपी हुई उमंगों में..
No comments:
Post a Comment